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कविता

आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है

मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़


आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहवेंगे क्या कहने को है

देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को हैं

दम-बदम रूक-रुक के है मुँह से निकल पड़ती ज़बाँ
वस्फ़ उसका कह चुके फ़व्वारे या कहने को है

देख ले तू पहुँचे किस आलम से किस आलम में है
नालाहाए-दिल[1] हमारे नारसा[2] कहने को है

बेसबब सूफ़ार[3] उनके मुँह नहीं खोले है 'ज़ौक़'
आये पैके-मर्ग[4] पैग़ामे-क़ज़ा कहने को है

शब्दार्थ:
1. दिल का रोना
2. लक्ष्य तक न पहुँचने वाले
3. तीर का मुँह
4. मृत्यु का दूत


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